Wednesday, April 25, 2018

ज़िन्दगी

ये ज़िन्दगी की जो किताब है
कई और पन्नें जुड़ेंगे उसमें
कुछ गद्द
कुछ पद्द
उसमे होगा थोड़ा रस
थोड़ा स्वांग
थोड़ा प्रेम 
मगर होगी वो लबालब ख़ुशी से
‒ ऐसा हमने सोचा |

जब कभी ये छोटी परी आएगी आँगन में
रौशन होगा हर एक कमरा
हर एक किनारा
हर उस चौखट के परदे
खेल रहे होंगे अठखेलियाँ |
रोशनदान से आने वाली  हरेक किरणें
ढूंढेगी इसको
हर पहर |
आँगन के बीच खिली तुलसी की हरेक पत्ती
होगी स्मित
हर एक गेंदा रह होगा मुस्करा |
घर होगा एक बागीचा 
बाग़ में हर एक वो भौरा
हर एक वो फूल 
हर एक वो पौधा 
होगा मगन 
जब कभी ये परी होगी खिलखिला |

पर उसने सोचा ‒
ज़िन्दगी नयी होगी जब मिलेंगे हम
न होंगी उसमे पुरानी दीवारें
न पूराना छत 
न पुराना कमरा
न पुराना घर |
ज़िन्दगी की किताब होगी नयी
बेहतरीन और 
बड़ी खूसबसुरत
हर पन्ने होंगे नए और करारे |
वो जो है किताब पुरानी 
है बहुत पुरानी
जमी है धुल उस पर
पन्ने हो गए बेजान और पीले |
घर होगा एक बागीचा 
पर हर फूल होंगे नए
हर पौधा होगा नया 
हर खिड़की होगी नयी
और खिड़कियों के हर एक परदे होंगे नए 
एकदम नए|

सूरज की किरणे अब भी आती 
रोशनदान से 
मगर सहमकर |
फूल, पौधा और पत्ती
अब भी होते मुस्करा 
पर सकुचा कर |

हमने सोचा 
नहीं बदलेगा मंज़र
पर 
बदल रही थी पूरी फ़िज़ा |

- संदीप सोनी
पोर्टलैंड
२४ अप्रैल २०१८
@SandeepSoniPhD

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Saturday, March 10, 2018

बचपन क्या है?

दोपहर की झपकी ले रहे नाना के फतुही से
बड़ी चालाकी से
कुछ सिक्के चुराना
और बस्ती के दूसरी ओर हलवाई की दुकान में
समोसे और जलेबियाँ खाना |
नानी की सिफारिश बढ़ई को लगा के नयी गिल्लियां बनवाना
और मस्जिद के सामने वाले मैदान में हर शाम
गिल्ली-डंडा खेलना |

जेठ की गर्मी में
दोस्तों के साथ पढ़ने के बहाने
चुपके से घर से बहार निकलना
और जामुन के उस विशाल पेड़ से मोटे बड़े काले गदरायें जामुन तोडना |
आषाढ़ की आंधी के बाद की ठंढी हवा में
खिड़कियां खोल के
छत पे बेख़ौफ़ सोना
और फिर सुबह में पके पिले गिरे आमों को चुनना |

देर रात तक लैंप के निचे पढ़ते रहने का नाटक करना
और पिता के डर से हर सवेरे झुंझला कर जागना |
अपनी पुरानी साइकिल को तेजी से दोनों हाथ छोड़ के चलाना
और गांव की उस गली में जाने अनजाने बार बार जाना |

हर शाम दोस्तों के साथ
उस बांध के किनारे वाले टीले पे
गुजरते क्षण का बड़े ठहराव से मजे लेना
और बड़ी बारीकी से गांव में चल रहे
हर फ़साने का विश्लेषण करना |

भूलते-भागते 
बचपन के वो दिन |

-संदीप सोनी
पोर्टलैंड
१० मार्च २०१८
 @SandeepSoniPhD

Tuesday, March 6, 2018

शर्तें…

अनमने मन से
और घबराकर उसने पूछा
और क्या है तुम्हारी शर्तें ?
मोम सा पिघल कर
बड़ी नज़ाकत से उसने कहा
परवाह कितनी तुमको है मेरी
ये तकदीर मेरी जो हमने तुमको है पाया
इतना शांत और सदय हमसफ़र किसी का ना होगा |
सकपका रहा था वो
पता नहीं इस तारीफ के पीछे छिपी हो कितनी शर्तें ?

देखो मैं हूँ कितना साफ और कितनी सुन्दर
मेरे  जैसा  कभी कोई मिला है पहले ?
तुम हो नक्षत्रीय
जो मैं मिली हूँ तुमको |
शर्त ये है की
वो जो दिन रात तुम लिखते रहते हो
उन सादे पन्नो पे
बेशक लिखते रहो
लेकिन
आज के बाद
उस हरेक रचना की रूह हमको बनाना |

टिमटिमाती तारों से सने
उस चांदनी रात में
मंद बयार के झोंके जब आके
ले जाए तुमको सपनो की दुनिया में
शर्त ये है की
वहां भी तुम्हारी हरेक धड़कन पे नाम होगा मेरा
वहां भी तुम प्रणय करोगे मुझही से |

उसने कहा  
तुम हो स्वतंत्र कुछ भी करने के लिए
कुछ भी सोचने के लिए
कुछ भी चाहने के लिए
तुम पकड़ सकते हो क्षितिज को
छु सकते हो गगन को
जीत सकते हो विश्व को
शर्त ये है की
आज के बाद
उन इरादों के मालिक हम होंगे |

बहुत व्यग्र था मन
है ये प्रेम या आसक्ति?
इतना व्याकुल ना हुआ था पहले
इतना स्वार्थ ना देखा था पहले |
प्रेम है शांत और सुमधुर
प्रेम है बलिष्ठ और स्वतंत्र
प्रेम है हिम्मत और उत्साह
प्रेम में ना होती इतनी शर्ते |
उसका आतुर मन
चाहता था उड़ना उस नीले गगन में
बिना शर्तों के |
  

- संदीप सोनी
पोर्टलैंड
२३ जनवरी २०१८
@SandeepSoniPhD

Tuesday, February 20, 2018

धर्म


धर्म है सबल और उदार
धर्म है शांत और सुकृत
धर्म है प्रेम और अहिंस
धर्म है सत्य और सशक्त
धर्म है गाँधी और बुद्ध
धर्म है राम और कृष्ण |

धर्म ना करता भेद
हिन्दू में और
मुसलमान में
सिख में
ईसाई में |
जाती में
पंथ में |
रिश्तों में
संबंधों में |

विष्णु-अवतार राम ने शिव-भक्त रावण को मारा
क्यों की ये धर्म था |
कृष्ण ने सगे मामा को मारा
क्यों की ये धर्म था |
अर्जुन ने छली भाइयों को मारा
ये धर्म था |

वो जो कहते हो
भीड़ बनकर
एक कमज़ोर को मारकर
की धर्म-युद्ध है |
क्यों की वो
दीखता अलग है
पहनता अलग है
बोलता अलग है |
‒ वो अधर्म है |
किया था धर्म-युद्ध महाराणा ने
पुरू ने
आज़ाद ने
आतताइयों से
मरते दम तक |

आज बांधते तुम
धर्म को दायरों में
हिन्दू के
मुस्लमान के
ब्राह्मण के
शूद्र के
ये भूल जाते की
धर्म का न आकार है
न प्रकार है
न रंग है
न जन्म है |

बाँटना काम नहीं धर्म का
काम है अधर्मियों का |
धर्म है सत्य |
धर्म है मानवता |
धर्म है राम |

- संदीप सोनी
पोर्टलैंड
१८ फ़रवरी २०१८
@SandeepSoniPhD

Friday, January 26, 2018

भूल गया

पिता के कंधे पे बैठ
जब मैं उछलता और
चिल्लाता –
जय कन्हैया लाल की
जवाब आता –
हाथी घोडा पालकी
सारी दुनिया अपनी लगती
सारे लोग अपने लगते
हम उस दुनिया के शहंशाह होते
सारे लोग हमारी खिदमत में रहते |
आज सात-समंदर पार
फिर से
ढूंढता हूँ वो कंधा |
मैं अपनों का कंधा बनते बनते
अपना कंधा भूल गया |

वो घर
दो कमरे का
किराए का  
किसी बंगले से कम न लगता |
आज ये मेरा महल
किसी आशियाने को वीरान करने की सजा लगता है |
महल तो बना दिया
मगर
कमरा बनाना भूल गया |

आवारा जब घूमता
मै
बेपरवाह
गलियों में - दोस्तों के साथ
ट्रैन के पटरियों पे - चप्पल में
बिना डरे
बिना सोचे
बिना समझे
पता था मुझे - परवाह मेरी सबको है |
अब
बरसों बाद
जब मै घूमता हूँ
गाड़ियों में
चौड़ी सड़कों पे
बड़े शहरों में
कीमती जूतों में
जिम्मेदार और शांत
फिर भी चिंतित
अपनों की परवाह से |
सोंचता हूँ
मुझे - परवाह तो सभी की है
बस
अपनों की परवाह करना भूल गया |
 
- संदीप सोनी
पोर्टलैंड
१५ दिसंबर २०१७

Monday, January 8, 2018

पूस की सुबह में


घर तरबतर 
अगरबत्ती की महक से
दूर से आते मठिये की भजन से
उस पूस की सुबह में |

माँ है रसोईघर में
पिता नहा रहे आँगन में
दादी करती पूजा मंदिर में
और दादा डूबे –
कल की अख़बार में
अख़बार को दोबारा पढ़ते
छत के ऊपर धुप में |
सारे कुटुंब लगे
अपने काम में |
बस्ती के बीच से
घूमता हुआ
पहुंचता स्कूल मैं |

ये भी है पूस की सुबह
पानी से भीगती
न भोर की किरण  से
न मठिये की भजन से
सरोबार
स्वार्थ से
उपेक्षा से |

अब भी देखता मैं
तीन पीढ़ियां
पर
दूसरों के ‒
साथ बाजार में
डिनर टेबल पे उस रेस्त्रां में
घर के पास वाले पार्क में
और दोस्तों के फेसबुक पोस्ट में |

गाड़ियों से भरी सड़क पे
बैठ कर बड़ी गाड़ी में
जाता मैं काम पे
अस्थिरचित
पूस की सुबह में |

- संदीप सोनी
पोर्टलैंड
३ जनवरी २०१८