अनमने मन से
और घबराकर उसने
पूछा ‒
और क्या है
तुम्हारी शर्तें
?
मोम सा पिघल कर
बड़ी नज़ाकत से उसने
कहा ‒
परवाह कितनी तुमको
है मेरी
ये तकदीर मेरी जो
हमने तुमको है पाया
इतना शांत और सदय
हमसफ़र किसी का ना होगा |
सकपका रहा था वो
पता नहीं इस तारीफ
के पीछे छिपी हो कितनी शर्तें ?
देखो मैं हूँ कितना
साफ और कितनी सुन्दर
मेरे जैसा
कभी कोई मिला है पहले ?
तुम हो नक्षत्रीय
जो मैं मिली हूँ
तुमको |
शर्त ये है की ‒
वो जो दिन रात तुम
लिखते रहते हो
उन सादे पन्नो पे
बेशक लिखते रहो
लेकिन
आज के बाद
उस हरेक रचना की
रूह हमको बनाना |
टिमटिमाती तारों से
सने
उस चांदनी रात में
मंद बयार के झोंके
जब आके
ले जाए तुमको सपनो
की दुनिया में
शर्त ये है की
वहां भी तुम्हारी
हरेक धड़कन पे नाम होगा मेरा
वहां भी तुम प्रणय
करोगे मुझही से
|
उसने कहा ‒
तुम हो स्वतंत्र
कुछ भी करने के लिए
कुछ भी सोचने के
लिए
कुछ भी चाहने के
लिए
तुम पकड़ सकते हो क्षितिज
को
छु सकते हो गगन को
जीत सकते हो विश्व
को
शर्त ये है की
आज के बाद
उन इरादों के मालिक
हम होंगे
|
बहुत व्यग्र था मन
है ये प्रेम या
आसक्ति?
इतना व्याकुल ना
हुआ था पहले
इतना स्वार्थ ना
देखा था पहले
|
प्रेम है शांत और
सुमधुर
प्रेम है बलिष्ठ और
स्वतंत्र
प्रेम है हिम्मत और
उत्साह
प्रेम में ना होती
इतनी शर्ते
|
उसका आतुर मन
चाहता था उड़ना उस
नीले गगन में
बिना शर्तों के |
- संदीप
सोनी
पोर्टलैंड
२३ जनवरी २०१८
@SandeepSoniPhD
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