Wednesday, June 25, 2014

अश्क़

अश्क़
या फिर एक रंगीन समुन्दर
रंगो में रंगे अश्क़
फिर भी सफ़ेद
आँखों से लुढ़कने को मचल रहे थे।

मैंने मोतियाँ टूटते हुए देखा है
उसकी नीली झील से;
जब भी मैं करीब होता हूँ
तो मोतियाँ टूटती है और लुढक पड़ती है लावण्यता को चूमती हुई;
उन सफ़ेद मोतियों में छिपे रंग - हज़ारो रंग
और उन रंगीनियों में चमकता इश्क़ सिर्फ मै देख सकता हूँ।

जब भी होता हूँ करीब - उन सुर्ख होठों के
गुमसुम खोई हुई आँखों के
उस तन्हाई में -
जी करता है चूम लू उन सीपियों को जिसने जने इतने प्यारे मोती - पी जाऊं उस समन्दर को।
देखता रहता हूँ उसे अपलक
उस शाम की तन्हाई में
यूं ही -
उसी अंदाज़ में गुमसुम खोया खोया ।
महसूसता रहता हूँ
मंद बयार के झोंको से बिखरे केशुओं को।

ये अश्क न चाहते हुए भी बहुत कुछ कह जाते है
मोतियों के रूप में
एक नशा दे जाते है ये आँखों में
गुमसुम कर देते है चेहरे को - पर ज़ाहिर कर देते है सब कुछ।

उस शाम जब मैंने उसके गालों को हाथों में लिए था
यही अश्क़ मुझे निमंत्रण दे रहे थे -
खुले आलिंगन का
समेट लेने का
अपने आप को - अंदर तक।
मैंने उस समंदर में डूबने की कोशिश की थी;
शायद वहीँ - इन रंगीनियों का राज़ मालूम हो जाए।
मगर
डूबने से पहले ही मेरे आँखों से अश्क़ निकल चुके थे
और मै लिपट चूका उससे - अंदर तक।
अब वो चूम रही थी -
मेरे मोतियों को
जो कहीं अंदर से निकले थे
और मै गुमसुम खोया खोया
निहार रहा था - उस मुखड़े को।

काश
यूं ही क़ायम रहे ये ज़ज़्बात उस तन्हाई में
जो बयां करे थे उसने - अश्क़ों  के सहारे मेरे लिए
और मै निहारता रहूँ उसको
क़रीब से
उन्ही अश्क़ों के सहारे।

वाराणसी
२२-९-(१९९९-२०००)



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