Thursday, June 12, 2014

ख़त

इंतज़ार में
मैंने सैकड़ों ख़त लिखे
तलाशता रहा थोड़ा सुकून
उस इंतज़ार में।
लेकिन
अगर इंतज़ार में खामोशी नहीं तो फिर वो इंतज़ार कैसा (?)
मेरे इस इंतज़ार में भी
वही दर्द था वही तड़प थी।
सुनसान गलियों से
मैं गुजरता रहा
हासिल करने के लिए थोड़ी मुस्कराहट -
जो कभी मेरे होठों पर तैरा करती थी।

मै
पा लेता कुछ भी
ग़र चाहता तो
झाँक लेता उसकी नीली आँखों में
चूम लेता उसकी सुर्ख़ियों को
समा जाता उसके सीने में
खो जाता उसकी घटाओ में
कस कर समेट लेता उसको
अगर वो पास होती तो।

मै
खामोश चूमता रहा
उसकी खूबसूरती को
अपने नए ख़त में।



वाराणसी
२९-१०-१९९९


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