Friday, July 11, 2014

इक ख़्वाहिश

कोशिशों की  मझधार में
खड़ी - मेरी इक ख़्वाहिश
इठलाती हुई सी
संगमरमरी बदन पे मलमली दुपट्टा लादे
अंगड़ाई भरती हुई सी।

आतुर वो
बयाँ करने को - सारी दास्ताँ
आँखों से।
चाह एक स्पर्श की
और कशिश लुटा देने की सब कुछ -
उस स्पर्श के लिए।

मग़र पता नहीं उसको
की वो खड़ी है मझधार में
- कोशिशों के बीच -
वो कोशिशें जो थक गईं है
जिनमे कोई हलचल नहीं है
एक कमज़ोर वृक्ष की तरह - जिसकी जड़ों ने तने का साथ छोड़ दिया हो।

कोशिशें फ़िराक में  एक बलिष्ठ हाथ की
ताकि वो पा सके खुशबू उस स्पर्श की
जिसकी चाह इन्हे है -
और मिट सके उसकी प्यास उस स्पर्श के ज़रिए।

ख्वाहिशे पा चुकी थी स्पर्श
अनजान बलिष्ठ हाथों का - फिर भी खड़ी थी वहीँ
न कोई अंगड़ाई थी न बदन में वो जादू था।
क्यों (?)
वो स्पर्श उन हाथों ने नहीं किए जिसके लिए उसके चितवन में हलचल थी
वो आलिंगन उसका नहीं था जिसको उसने घंटों निहारा था
- एकटक सुधबुध खो कर।

अब उन बूढी कोशिशों में डूबती नवयौवना
रो रही थी
सब कुछ लूटा कर
उन क्रूर हाथों के ज़रिए।

पटना
१९९७-१९९८




एक ज़ख़्म

एक ज़ख़्म -
छोटा सा मगर गहरा
लिए मैं घूम रहा हूँ
अपने दोस्तों के बीच,
ताकी उनमे से कोई एक
उसकी गहराई को भाँप सके।
उस ज़ख़्म को महसूस सके।
उसे लगे की मैं उसके लिए बना हूँ
और वो मेरे लिए बना है।

मग़र
डरता हूँ
इस बात से की,
कहीं वो जान न जाए
की ये ज़ख़्म हक़ीक़त में ज़ख़्म नहीं हैं।
ये एक सज़ा है,
अपने एक अज़ीज को धोखा देने की,
उसके मोहब्बत को बदनाम करने की।

लेकिन
अगर मैं इतना ही बदसूरत हूँ तो,
इंतज़ार करूँगा
ज़ख़्म के नासूर बनने का,
और
ऐसा दर्द पाने का -
जिससे से तड़पता रहूँ
हमेशा।

वाराणसी
११:३५ pm
१४-८-१९९९